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वैदिक काल नोट्स pdf | vaidik kal‌ notes Download

वैदिक काल (Vaidik Kal)

सिंधु सभ्यता अथवा हड़प्पा सभ्यता के पतन के पश्चात् संभव प्रदेश में आर्यों द्वारा एक नवीन सभ्यता का विकास किया गया. जिसे इतिहास में वैदिक सभ्यता के नाम से जाना जाता है। वैदिक सभ्यता के निर्माता आर्य थे। 

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आर्यों के मूल निवास के संबंध में निम्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है -


  • यूरोपीय सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार आर्यों का मूल निवास स्थान यूरोप था। इसका प्रतिपादन सर विलियम जोन्स ने किया। 

  • जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर के अनुसार आर्य मध्य एशिया (ईरान) से आए थे।

  • लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने आर्कटिक प्रदेश (उत्तरी ध्रुव) को आर्यों का मूल स्थान बताया है। 

  • डॉ. गंगानाथ झा. के अनुसार आर्यों का आदि देश ब्रह्मर्षि देश (कुरु, पांचाल, शूरसेन तथा मत्स्य जनपद) भारत था।

  • स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तिब्बत को आर्यों का आदि देश माना है। 'पार्जितर' ने भी इनके मत का समर्थन किया है। 

  • पी. गाइल्स ने आर्यों को समशीतोष्ण प्रदेश (विशेषत: हँगरी क्षेत्र) का मूल निवासी बताया है।

  • दक्षिणी रूस के स्टेपी मैदानों को आर्यों का मूल निवास मानने वाले विद्वान नेहरिंग व पीकानो हैं ।

  • एल.डी. कल्ल आदि विद्वान आर्यों को मूल निवास कश्मीर क्षेत्र को मानते हैं। 

  • सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त प्रो. मैक्समूलर द्वारा प्रतिपादित मध्य एशिया का सिद्धान्त । 

भारत में आर्यों का आगमन

भारत में आर्यों का आगमन लगभग 1500 ई.पू. का माना जाता है। प्रारम्भ में इनके अधिवास का प्रधान केन्द्र सप्त सैंधव प्रदेश (सिन्धु व उसकी सहायक नदियों का क्षेत्र) था, जो उत्तरवैदिक काल में गंगा यमुदा के मैदान में स्थानान्तरित हो गया। वैदिक काल को दो भागों में बाँटा गया हैं - 
1. ऋग्वैदिक काल- (1500 ई.पू.- 1000 ई.पू.)

वैदिक काल का सामाजिक जीवन -

समाज पितृसत्तात्मक था। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों को समाज में सम्माननीय स्थान प्राप्त था। घोषा, अपाला आदि इस काल की प्रमुख विदुषी महिलाएँ थीं। महिलाएँ धार्मिक समारोहों एवं कबिलाई सभाओं में भाग लेती थी। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति शोचनीय हो गई थी, लेकिन इस काल में भी गार्गी, मैत्रेयी आदि विदुषी महिलाएं हुई। 

वैदिक लोगों का आर्थिक जीवन - 

वैदिक अर्थव्यवस्था मुख्यतः पशुपालन एवं कृषि पर आधारित थी। ऋग्वेद के प्रथम, चौथे एवं दसवें मंडल में कृषि विषयक तथ्य मिलते है। प्रारंभ में आर्यों को 'यव' (जौ) एवं 'धान्य' एवं गोधूम (गेहूँ) अनाजों की जानकारी थी।

वैदिक काल में व्यापार तथा वाणिज्य - 

ऋग्वैदिक आर्यों को सोना एवं ताँबा धातु की जानकारी थी। चाँदी का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। आर्यों ने लोहे को उपयोग में लिया था। व्यापारियों के लिए ऋग्वेद में 'पणि', 'वणिज' एवं 'वणिक' आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। ऋग्वैदिक काल में व्यापार छोटे स्तर पर था तथा मुख्यतः वस्तु-विनिमय प्रणाली पर आधारित था। 

वैदिक काल में पशुपालन -

आर्यों को गाय, घोड़ा, भेड़-बकरी, बैल, हाथी, कुत्ता, भैंस, गधा, ऊँट आदि पशुओं की जानकारी थी। 'गाय' ऋग्वैदिक काल में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पशु थी। संभवतः गाय विनिमय का साधन थी।

वैदिक काल में दास प्रथा -

ऋग्वैदिक काल से ही दास प्रथा विद्यमान थी। अधिकतर दास महिलाएँ थी । 

  • ऋग्वैदिक काल में आर्य कबीलों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिभ्रमण करते रहते थे परन्तु उत्तरवैदिक काल में ये एक क्षेत्र विशेष में स्थायी रूप से रहने लगे तथा ऋग्वैदिक 'जन' अब 'जनपदों' में रूपान्तरित हो गए। 

  • पांचाल, कुरु, काशी, कौशल, विदेह, मत्स्य, चेदि, मगध, अंग आदि इस काल के प्रमुख जनपद थे।

  •  ऋग्वैदिक काल में प्रारम्भ में राजव्यवस्था गणतंत्रात्मक थी जो बाद में वंशानुगत (राजतंत्रात्मक) हो गई। 

  • राजा जिन मंत्रियों की सहायता से कार्य करता था, उन्हें 'रत्निन' कहा जाता था। 

  • यह एक ग्राम प्रधान (ग्रामीण) सभ्यता थी। आर्यों का प्रमुख धन्धा कृषि व पशुपालन था। वर्ष में दो फसलें ली जाती थी। 

  • आर्यों के जीवन में घोड़े एवं रथ का स्थान महत्त्वपूर्ण था। घोड़ा शक्ति का प्रतीक था। घोड़े एवं रथ के प्रयोग से आर्यों को अपने विस्तार में सहायता मिली। युद्धों में घोड़े के प्रयोग ने उन्हें व्यापक सफलता प्रदान की।

  • ऋग्वैदिक काल में अग्निदेव एक महत्त्वपूर्ण देवता परंतु उनकी स्वतंत्र देवता के रूप में पूजा नहीं की जाती थी ।

  • आर्य लोहे से परिचित थे। कृषि औजार लोहे व लकड़ी से बने होते थे। लोहे को 'कृष्ण अयस्क' कहा जाता है। 

  • व्यापारी को 'पणि' कहा जाता था। व्यापार का माध्यम वस्तु विनिमय था। गाय मूल्य की प्रमाणिक ईकाई थी। 

वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था -

ऋग्वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था नहीं थी। उत्तरवैदिक काल में आश्रम व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ। प्रणाली का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऐतरेय ब्राह्मण' में मिलता है। जबाला उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने 4 आश्रमों का प्रतिपादन किया है। इसमें मनुष्य की संपूर्ण जीवन की आयु 100 वर्ष मानकर निम्न चार आश्रम निर्धारित किए गए -
  1. ब्रह्मचर्य आश्रम (25 वर्ष की आयु तक)- इसमें व्यक्ति विद्याध्ययन करता था । 
  2. गृहस्थाश्रम (25-50 वर्ष )- इसमें व्यक्ति विवाह कर जीविकोपार्जन एवं गृहस्थी का निर्वहन करता था। 
  3. वानप्रस्थाश्रम (50-75 वर्ष)- इसमें व्यक्ति को वन की कोर गमन करना होता था। 
  4. संन्यासाश्रम (75-100 वर्ष)- इसमें व्यक्ति को सांसारिक मोह माया त्यागनी होती थी।

  • आर्य मूर्ति पूजक नहीं थे बल्कि बड़े-बड़े यज्ञ करते थे।
 

वैदिक काल में चार वर्ण -

ऋग्वैदिक काल के आरंभ में तीन वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य) थे। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में पहली बार निम्न चार वर्णों का उल्लेख मिलता है -

ब्राह्मण - ब्राह्मण वे थे जिनकी उत्पत्ति आदि पुरुष के मुख से हुई है। ब्राह्मण वर्ण का समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान था। इनका मुख्य कार्य वेदों का पठन-पाठन करना, भिक्षा तथा दान ग्रहण करना तथा धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न कराना था। 

क्षत्रिय - क्षत्रियों की उत्पत्ति आदि पुरुष की भुजाओं से हुई मानी जाती है। इस वर्ण का कार्य बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना तथा देश अथवा राज्य को आंतरिक सुरक्षा प्रदान करना था। 

वैश्य - वैश्य की उत्पत्ति आदि पुरुष की जंघाओं से हुई। यह कृषि, पशुपालन, उद्योग-धन्धे व व्यवसायों में संलग्न वर्ण था। 

शूद्र - इनकी उत्पत्ति आदि पुरुष के चरणों से हुई मानी जाती है। यह चौथा वर्ण था। आर्यों द्वारा विजित दास धीरे धीरे शूद्र वर्ण बन गये। इसका समाज में निम्नतम स्थान था। तीनों वर्णों की सेवा करना शूद्र का मुख्य कार्य था। प्रारंभ में वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी लेकिन उत्तरवैदिक काल में धीरे-धीरे यह जन्म पर आधारित हो गई। जिसने बाद में जाति व्यवस्था का रूप ले लिया। 

'सभा' एवं 'समिति' दो प्रमुख वैदिकराजनीतिक संस्थाएँ थी। 

सभा : यह बड़े-बूढ़ों की संस्था होती थी। प्रारम्भ में इसमें स्त्रियाँ भी भाग लेती थीं लेकिन बाद में इनका भाग लेना बंद में हो गया था। सभा में राजनीतिक तथा प्रशासनिक चर्चायें होती थीं। न्यायिक कार्य भी किये जाते थे। 

समिति : यह सामान्य लोगों की सभा होती थी। राजा का निर्वाचन करना इसका मुख्य कार्य था। इसके अलावा राजा समिति में नियमित उपस्थित होते थे तथा ज्ञान की चर्चाएँ भी होती थीं । 

संस्कार संस्कारों का शास्त्रीय विवेचन सर्वप्रथम 'वृहदारण्यकोपनिषद्' से प्राप्त होता है। इनकी संख्या 16 है जो निम्न है -

गर्भाधान संस्कार - एक पुरुष द्वारा स्त्री में अपना वीर्य स्थापित करने की क्रिया ।

पुंसवन संस्कार - स्त्री द्वारा गर्भधारण करने के तीसरे, चौथे अथवा 8वें माह में पुत्र प्राप्ति की इच्छा हेतु संपन्न संस्कार । 

● सीमांतोन्नयन संस्कार- यह संस्कार स्त्री के गर्भ की रक्षा के लिए गर्भ के चौथे अथवा पाँचवें माह में किया जाता था। इस प्रकार ये तीन संस्कार शिशु के जन्म से पूर्व किए जाते थे। 

● जातकर्म संस्कार - शिशु के जन्म के उपरान्त यह संस्कार किया जाता था। इस संस्कार के समय पिता नवजात शिशु को अपनी अंगुली से मधु अथवा घृत चटाता था तथा उसके कान में मेघाजनन का मंत्र पढ़ उसे आशीर्वाद देता था।

नामकरण संस्कार - यह संस्कार नवजात शिशु के नाम रखने हेतु किया जाता था। 

● निष्क्रमण संस्कार - नवजात शिशु को घर से बाहर निकालने व सूर्य के दर्शन कराने के अवसर पर किए जाने वाला संस्कार । इस संस्कार को शिशु के जन्म के 12वें दिन से चौथे मास के मध्य कभी भी किया जा सकता है। 

अन्नप्राशन संस्कार - शिशु के जन्म के 6वें मास में शिशु को ठोस अन्न खिलाने का संस्कार। 

● चूडाकर्म संस्कार - इस संस्कार को मुंडन अथवा चौल संस्कार के नाम से भी जाना जाता है। इस संस्कार के अवसर पर शिशु के सिर के संपूर्ण बाल मुंडवा दिये जाते हैं। सिर पर मात्र शिखा (चोटी) रहती है । 

कर्णवेध संस्कार - यह संस्कार रोगादि से बचने और आभूषण धारण करने के उद्देश्य से किया जाता है। 

● विद्यारम्भ संस्कार - यह संस्कार बालक के जन्म के 5वें वर्ष में सम्पन्न किया जाता है। इस संस्कार के अंतर्गत बालक को अक्षरों का ज्ञान कराया जाता है। 

● उपनयन संस्कार - बालक के शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाने पर यह संस्कार किया जाता था। इस संस्कार के अवसर पर बालक को यज्ञोपवीत धारण करवा के ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रविष्ट कराया जाता था। 

• वेदारम्भ संस्कार - इस संस्कार में गुरु विद्यार्थी को वेदों की शिक्षा देना प्रारम्भ करता था । 

● केशान्त अथवा गौदान संस्कार - यह बालक के 16 वर्ष की • आयु प्राप्त करने पर किया जाने वाला संस्कार है। इस अवसर पर बालक की प्रथम बार दाड़ी-मूँछों को मूँडा जाता था। यह संस्कार बालक के वयस्क होने का सूचक है। 

• समावर्तन संस्कार - जब बालक विद्याध्ययन पूर्ण कर गुरु को उचित गुरु दक्षिणा देकर गुरुकुल से अपने घर को वापस लौटता था, तब इस संस्कार का सम्पादन किया जाता था। यह संस्कार बालक के ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति का सूचक है। 

● विवाह संस्कार - इस संस्कार के साथ ही मनुष्य गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होता है। 

• अन्त्येष्टि संस्कार - यह मनुष्य के जीवन का अंतिम संस्कार है जो व्यक्ति के निधन के पश्चात् सम्पन्न किया जाता है। 

विवाह : ऋग्वेद के दसवें मण्डल में 'विवाह-सूक्त' है, जिससे वैदिक वैवाहिक रीति-रिवाजों का ज्ञान होता है। वैदिक काल में बाल विवाह का प्रचलन नहीं था। विवाह की उम्र सामान्यत: 16 - 17 वर्ष थी। स्वैच्छिक वर-वधु चुनने का अधिकार था। अथर्ववेद में 'स्वयंवर-प्रथा' का उल्लेख है। एक पत्नी प्रथा आम रूप से प्रचलित थी। कहीं-कहीं बहु-विवाह भी होते थे। 'नियोग प्रथा' विद्यमान थी। विधवा विवाह का उल्लेख अथर्ववेद में है। सती प्रथा विद्यमान नहीं थी। विवाह निम्न 8 प्रकार के होते थे - 

ब्रह्म विवाह - यह सर्वोत्तम प्रकार का विवाह है। इसमें पिता उत्तम सजातीय योग्य वर को आमंत्रित कर, वस्त्र और आभूषणों से अलंकृत कर अपनी कन्या को धार्मिक विधि से अनुष्ठान के साथ 'वर' को देता था। 

• दैव विवाह - इस प्रकार के विवाह में कन्या पक्ष द्वारा कन्या को वस्त्राभूषण से अलंकृत कर यज्ञ करने वाले पुरोहित को दान में दे दिया जाता था। 

• आर्ष विवाह - इसमें कन्या का पिता वर से एक अथवा दो गाय धार्मिक कृत्यों हेतु लेकर अपनी कन्या दान कर देता था। 

• प्रजापत्य विवाह - इस प्रकार के विवाह में वर पक्ष कन्या के पिता से कन्या को माँगता था। 

• आसुरी विवाह - इस विवाह में पुरुष कन्या के माता-पिता को यथाशक्ति धन देकर कन्या को प्राप्त करता था।

• गंधर्व विवाह - जिसमें स्त्री व पुरुष परस्पर निश्चय कर एक-दूसरे के साथ गमन करते हैं, वह गंधर्व विवाह कहलाता है। 

• पैशाच विवाह - सोई हुई अथवा पागल कन्या के साथ मैथुन करना पैशाच विवाह कहलाता है। 

• राक्षस विवाह - रोती - बिलखती कन्या का बलपूर्वक अपहरण कर उससे किया गया विवाह राक्षस विवाह कहलाता है। 

• प्रशंसनीय विवाह के अंतर्गत ब्रह्म, दैव, आर्ष तथा प्रजापत्य विवाह आते हैं। 

• निदनीय विवाह के अंतर्गत आसुर, गंधर्व, पैशाच तथा राक्षस विवाह आते हैं। 

● दशराज्ञ युद्ध : ऋग्वैदिकालीन यह युद्ध भरतवंशी नरेश सुदास एवं दस कबीलाई राजाओं के संघ के मध्य परुष्णी (रावी) नदी के तट पर हुआ। इसमें सुदास की विजय हुई।

वैदिक साहित्यः वेद शब्द 'विद्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है 'जानना' । वैदिक साहित्य में निम्न शामिल हैं (1) चारों वेद (2) ब्राह्मण ग्रंथ (3) आरण्यक (4) उपनिषद् (5) वेदांग । 

वेदः आर्यों के प्रमुख ग्रंथ चार वेद हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद । इनके रचयिता महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास थे।

  •  ऋग्वेदः ऋग्वेद में कुल 1028 सूक्त हैं। सम्पूर्ण ऋग्वेद 10 मंडलों में विभाजित है। ऋग्वेद सभी वेदों में प्राचीनतम एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके अधिकांश सूक्तों में देवताओं का आह्वान है। इसके तीसरे मण्डल में सूर्य देवता-सावित्र को समर्पित प्रसिद्ध 'गायत्री मंत्र' है। उस समय कुछ विदुषी स्त्रियाँ भी थीं, जिन्होंने ऋग्वेद के सूक्तों और मंत्रों की रचनायें की थीं। इनमें लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, पौलोमी, शचि, विश्ववर, सिकता, निवाबरी आदि प्रमुख हैं। 

  • यजुर्वेद (यजु अर्थात् सूत्रों का वेद): इसमें यज्ञ के समय बोले जाने वाले मंत्रों एवं नियमों का उल्लेख है। इस वेद में राजसूय एवं वाजपेय यज्ञों का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है।


यजुर्वेद के दो भाग हैं- (1) कृष्ण यजुर्वेद एवं (2) शुक्ल यजुर्वेद यजुर्वेद का अंतिम भांग 'ईशोपनिषद्' है, जिसका संबंध याज्ञिक अनुष्ठान से न होकर आध्यात्मिक चिंतन से है। 

• सामवेदः भारतीय संगीत की उत्पत्ति इसी वेद से मानी जाती है। इसके सभी मंत्र गेय रूप में हैं, जिन्हें 'सोमयज्ञ' के समय 'उद्गाता पुरोहित' गाता था। 

• अथर्ववेदः अथर्ववेद में जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, अंधविश्वासों, शैतान एंव बीमारियों को दूर करने वाले मंत्र छंदों के रूप में हैं। यह वेद युद्ध वर्ग से संबंधित था।

ब्राह्मण ग्रंथ : प्रार्थना तथा यज्ञ उत्सव (यज्ञ-विज्ञान) से संबंधित ग्रंथ हैं। इनका विषय 'कर्मकाण्ड' से संबंधित है तथा भाषा गद्यात्मक है। 

आरण्यकः इन ग्रंथों का पठन-पाठन जंगलों (अरण्य) में होने के कारण ही इन्हें 'आरण्यक' कहा जाता है। आरण्यकों का. मुख्य विषय आध्यात्मिक तथा दार्शनिक चिंतन है। 

● उपनिषद्: ये वैदिक कालीन दार्शनिक ग्रंथ हैं। इनमें आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म तथा जीवात्मा के बीच संबंध, विश्व की उत्पत्ति, प्रकृति के रहस्य तथा अन्य विषयों पर दार्शनिक चिंतन है। इनकी मुख्य विषयवस्तु ज्ञान से संबंधित है। उपनिषद् मीमांसात्मक ग्रंथ हैं ।

वेदांग या सूत्र साहित्य : वेदांगों की रचना वेदों के अध्ययन एवं उनके अभिप्राय को समझने हेतु की गई थी। ये 6 हैं। 1. शिक्षा (स्वर विज्ञान), 2. कल्प (कर्मकाण्ड ), 3. व्याकरण, 4. निरुक्त ( व्युत्पत्ति), 5. ज्योतिष, 6. छन्द


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