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विधिक अधिकार और नागरिक अधिकार पत्र नोट्स | Legal Rights and Citizen Charter notes

 विधिक अधिकार

(Legal Right)

लीलॉक के अनुसार “कानूनी अधिकार उन विशेष अधिकारों को कहा जाता है, जो एक नागरिक को अन्य नागरिकों के विरूद्ध प्राप्त होते है तथा जो राज्य की सर्वोच्च शक्ति द्वारा प्रदान किये जाते हैं एवं जिनकी रक्षा राज्य द्वारा की जाती है।

इस प्रकार विधिक अधिकार विधि द्वारा मान्य एवं संरक्षित हितों के रूप में किसी व्यक्ति को प्राप्त वह विशेषाधिकार है जिससे वह अन्य व्यक्ति अथवा समूह को कोई कार्य करने अथवा ना करने के लिए वैधानिक रूप से बाध्य करता है।

उच्चतम न्यायालय ने विधिक अधिकार की व्याख्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 131 के अन्तर्गत आने वाले दो प्रमुख निर्णयों राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ और कर्नाटक राज्य बनाम भारत संघ में की है।

एक अधिकार के लिए तीन तत्व-इच्छा, हित और संरक्षण आवश्यक है। विधिक अधिकार के सिद्धान्त निम्न हैं-

अधिकारों की इच्छा का सिद्धान्त - अधिकार को मानवीय इच्छा का अन्तर्निहित लक्षण माना गया है। ऑस्टिन, हालैण्ड, लॉक, विनोडोग्राफ, होम्स ने इच्छा को विधिक अधिकार का आधार मानकर विधिक अधिकार की व्याख्या की है।

अधिकारों का हित सम्बंधी सिद्धान्त - इहरिंग द्वारा प्रतिपादित यह सिद्धान्त यथार्थता के विधिशास्त्र पर विशेष जोर देता है एवं अधिकार का मूल आधार हित को मानता है, इच्छा को नहीं।

अधिकारों के संरक्षण का सिद्धान्त - विधिक अधिकारों का विशिष्ट लक्षण विधिक व्यवस्था द्वारा इसकी मान्यता है।

विधिक अधिकार की विशेषताएँ-

इनका एक धारणकर्त्ता होता है।

अधिकारों की विषयवस्तु आवश्यक है।

अधिकारों का स्वत्व (Title) एवं स्वामित्व होता है।

यह समाज के सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति हेतु मनुष्य को प्रदान आवश्यक दशाओं का द्योतक है।

इसकी संकल्पना सकारात्मक विधि से जुड़ी है।

इसमें विधि एवं राज्य की भूमिका अपरिहार्य बन जाती है। ये विधि के द्वारा मान्यता प्राप्त एवं संरक्षित हित है।

विधिक अधिकार विधि की देन है। यह सामाजिक मान्यता एवं प्रवर्तन पर आधारित होते हैं।

विधिक अधिकार उत्पति, प्रकृति और प्रवर्तनीयता के दृष्टिकोण से मूलाधिकारों से भिन्न होते हैं।

विधिक अधिकारों के प्रवर्तन में न्यायालय उस तरह कार्यशील नहीं होता है जिस तरह का मूलाधिकारों के प्रवर्तन में होता है।

मूलाधिकारों को अनुल्लंघनीय माना गया है उन्हें केवल सांविधानिक संशोधन द्वारा ही प्रभावित किया जा सकता है लेकिन इससे संविधान का मूल ढाँचा नष्ट नहीं होना चाहिए। विधिक अधिकार व्यक्तियों और व्यक्तियों के बीच सम्बंध उत्पन्न करते हैं। विधिक अधिकारों को व्यक्ति त्याग सकता है। ये अधिकार सकारात्मक होते है।

उदाहरण-

संपति का अधिकार

राजस्थान लोक सेवाओं के प्रदान करने की गारंटी अधिनियम-2011

राजस्थान जन सुनवाई का अधिकार - अधिनियम 2012

नागरिक अधिकार पत्र

(Citizen Charter)

विश्व का पहला नागरिक अधिकार पत्र 1991 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉन मेजर के द्वारा जारी किया गया।

राजस्थान में 1997 में राजस्व मण्डल द्वारा पहला सिटिजन चार्टर जारी किया गया।

इसके अन्तर्गत किसी भी संगठन के उद्देश्य, कार्यों, कार्यों के करने के तरीकों, कार्यो से संबधित अधिकारियों तथा अधिकारियों द्वारा अपने दायित्वों का निर्वहन ना करने पर उनके विरूद्ध की जाने वाली शिकायतों की प्रक्रिया का उल्लेख होता है।

RTI सिटिजन चार्टर का की एक भाग है।


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