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भारत में 1857 का विद्रोह नोट्स | Bharat mein 1857 ka vidroh pdf notes

 1857 का विद्रोह

ब्रिटिश शासन को भारतीय चुनौती

विद्रोह का आरम्भ :

  • इस समय गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग था।

  • विद्रोह का आरम्भ 10 मई, 1857 ई. को मेरठ में पैदल टुकड़ी से हुआ। इससे पहले 29 मार्च, 1857 ई. को बैरकपुर (प. बंगाल) के 34वीं एन. आई. रेजीमेंट के सैनिक मंगल पांडे ने अपने सार्जेन्ट की हत्या कर दी, परिणामस्वरूप 34वीं एन.आई. को भंग कर दिया गया।

  • 11 मई को विद्रोही सैनिक दिल्ली पर अधिकार कर लिये तथा 12 मई को बहादुरशाह को दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया। परन्तु वास्तविक नेतृत्व सैनिक नेता जनरल बख्त खां के हाथों में था।

  • अंग्रेजों ने पंजाब से सेना बुलाकर 21 सितम्बर, 1857 को दिल्ली पर कब्जा कर लिया। लेफ्टिनेंट हडसन ने धोखे से बहादुरशाह द्वितीय के दो पुत्रों एवं एक पोते को गोली मार दी।

  • कानपुर में तांत्या टोपे तथा नाना साहेब ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। तात्या टोपे को सिंधिया के सामन्त मान सिंह ने धोखे से पकड़वा दिया। 1859 में उन्हें फांसी दे दी गयी। नाना साहेब, बेगम हजरत महल एवं खान बहादुर खान नेपाल भागने में सफल हुए। जनरल बख्त खां मई 1859 में लड़ते-लड़ते शहीद हो गये।

  • जुलाई, 1858 तक विद्रोह लगभग दबा दिया गया।

 

विद्रोह के कारण :

  • डलहौजी की गोद निषेधा की नीति, कुशासन के आधार पर अवध तथा हैदराबाद का विलय, भारतीय लघु एवं कुटीर उद्योग, दस्तकारी तथा कृषि का विनाश, सामाजिक विश्वासों में हस्तक्षेप, धार्मिक कार्य़ों में हस्तक्षेप आदि।

 

सैन्य कारण :

  • 1854 ई. से सैनिकों को निःशुल्क डाक सुविधा समाप्त, 1856 का सामान्य सेना भर्ती अधिनियम, जिसके अंतर्गत सैनिकों को बाहर भी भेजा जाने लगा।

  • तात्कालिक कारण : 1856 में सरकार ने नवीन एनफील्ड राइफल में प्रयुक्त कारतूस मुँह से काटना पड़ता था, जिसमें गाय तथा सुअर की चर्बी का प्रयोग होता था। हिन्दू और मुसलमान दोनों सिपाहियों ने इसके प्रयोग से इंकार किया। यही चर्बी वाला कारतूस 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण था।

 

असफलता के कारण :

  • विद्रोह स्थानीय, असंगठित था, राष्ट्रीय भावना का अभाव था, भारतीय समाज के सभी वर्ग़ों का सहयोग विद्रोहियों को नहीं मिला, शिक्षित एवं मध्यम वर्ग उदासीन रहा।

  • सैन्य दुर्बलता तथा सैन्य नेतृत्व क्षमता की कमी, विद्रोहियों में योजना का अभाव आदि।

  • बम्बई एवं मद्रास की सेनाएं ग्वालियर, इंदौर, हैदराबाद, जोधपुर, पटियाला, कश्मीर, नामा, जींद तथा नेपाल के शासकों ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों के साथ सहयोग किया।

 

परिणाम :

  • 1858 ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त हो गया और भारत पर शासन का अधिकार महारानी के हाथों में आ गया।

  • इंग्लैंड में भारत राज्य सचिव की नियुक्ति हुई। भारत में गवर्नर जनरल का पद समाप्त कर वायसराय (क्राउन का प्रतिनिधा) की नियुक्ति हुई।

  • हिन्दू मुस्लिम एकता की भावना का विकास हुआ।

  • 1861 ई. में भारतीय परिषद अधिनियम पारित किया गया।

  • भारतीय यूरोपीय सैनिकों का अनुपात 2 : 1 कर दिया गया तथा तोपखाने पर पूर्णतः यूरोपीय सैनिकों का अधिकार स्थापित कर दिया गया।

 

प्रमुख नागरिक विद्रोह

  • संन्यासी विद्रोह (1763-1800) : संन्यासी विद्रोह की स्पष्ट जानकारी बंकिम चन्द्र चटर्जी के उपन्यास ’आनन्दमठ‘ से मिलती है, इस विद्रोह को कुचलने के लिए वारेन हेस्ग्सिं को कठोर कार्यवाही करनी पड़ी थी। अंग्रेजों द्वारा बंगाल के आर्थिक शोषण से जमींदार, कृषक तथा शिल्पी सभी नष्ट हो गये। 1770 में भीषण अकाल पड़ा। तीर्थ-स्थानों पर आने जाने पर लगे प्रतिबंधों से संन्यासी लोग बहुत क्षुब्ध हुए।

  • चुआर विद्रोह (1766-72, 1795-1816) : अकाल तथा बढ़े हुए भूमि कर तथा अन्य आर्थिक संकटों के कारण मिदनापुर जिले की आदिम जाति के चुआर लोगों ने हथियार उठा लिये।

  • रमोसी विद्रोह : पश्चिम घाट के निवासी रमोसी जाति के लोगों ने अंग्रेजी प्रशासन पद्धति तथा शासन से अप्रसन्न होकर 1822, 1825-26 और 1829 में विद्रोह कर दिया तथा सतारा के आस-पास का प्रदेश लूट लिया।

  • कोल्हापुर तथा सावन्तवाड़ी विद्रोह : 1844 ई. में कोल्हापुर राज्य के प्रशासनिक पुनगर्ठन होने के कारण गाड़कारी सैनिकों की छंटनी कर दी गई। बेकारी का प्रश्न सम्मुख देखकर गाड़कारियों ने विद्रोह कर दिया। इसी प्रकार सावन्तवाड़ी में भी विद्रोह हुआ।

  • पागल पंथी विद्रोह (1840, 1850) : यह अर्द्धधार्मिक सम्प्रदाय था, जिसको उत्तर बंगाल के करम शाह और उसके बाद उसके पुत्र टीपू ने आगे बढ़ाया। ये राजनीतिक तथा धार्मिक विचारों से प्रभावित थे।

  • फरैजी विद्रोह (1838-1857) : फरैजी लोग धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक परिवर्तनों के प्रतिपादक थे तथा शरीयतुल्ला द्वारा चलाए गए सम्प्रदाय के अनुयायी थी। शरीयतुल्ला के पुत्र दादू मियां ने बंगाल से अंग्रेजों को निकालने की योजना बनाई। यह विद्रोह जमींदारों के अत्याचारों के विरोध में 1838 से 1857 तक चलता रहा।

 

आदिवासी विद्रोह

  • कोल विद्रोह (1820-1836) : छोटा नागपुर के कोलों ने अपना क्रोध उस समय प्रकट किया, जब उनकी भूमि उनके मुखिया मुण्डों से छीनकर मुस्लिम कृषकों तथा सिक्खों को दे दी गई। 1831 ई. में कोलों ने लगभग 1000 विदेशी अथवा बाहरी लोगों को या तो जला दिया या उनकी हत्या कर दी। एक दीर्घकालीन तथा विस्तृत सैन्य अभियान के पश्चात् ही अशांतग्रस्त इलाके यथा-रांची, सिंहभूमि, हजारीबाग, पलामू आदि क्षेत्रों में शान्ति स्थापित हो सकी।

  • संथाल विद्रोह (1855) : राजमहल जिले के संथाल लोगों ने भूमिकर अधिकारियों के हाथों दुर्व्यवहार, पुलिस के दमन तथा जमींदारों एवं साहूकारों की वसूलियों के विरूद्ध अपना रोष प्रकट किया। इन लोगों ने सीदू, कान्हू के नेतृत्व में कम्पनी के शासन को अन्त करने की घोषणा कर अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया। पृथक संथाल परगना का निर्माण एवं विस्तृत सैन्य कार्यवाही के पश्चात् ही 1856 में स्थिति नियंत्रण में आई।

1857 के विद्रोह के संबंध में विभिन्न मत

यह पूर्णतया सिपाही विद्रोह था    

सर जान लारेंस व सीले

यह स्वतंत्रता संग्राम था   

डा. ईश्वरी प्रसाद

यह राष्ट्रीय विद्रोह था    

डिजरायली

अंग्रेजों के विरूद्ध, हिन्दू मुस्लिम षड्यंत्र था    

जेम्स आउट्रम, डब्लू टेलर

ईसाई धर्म के विरूद्ध एक धर्मयुक्त था      

एल. आर. रीज

सभ्यता एवं बर्बता का संघर्ष      

टी. आर. होम्स

यह विद्रोह राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए

सुनियोजित युद्ध था      

वीर सावरकर, अशोक मेहता

1857 का विद्रोह स्वतंत्रता संग्राम नहीं था  

आर. सी. मजूमदार

 

1857 का विद्रोह

विद्रोह 

नेता           

विद्रोही दमन

दिल्ली  

बहादुरशाह द्वितीय

निकोलसन लारेंस

लखनऊ

बेगम हजरत महल

कैम्पबेल

कानपुर 

नाना साहब             

कैम्पबेल

झांसी   

रानी लक्ष्मीबाई           

ह्वाूरोज

इलाहाबाद       

लियाकत अली          

कर्नल नील

बनारस 

सेना, जनसाधारण

कर्नल नील

बिहार  

कुंवर सिंह              

विलियम टेलर

पंजाब  

सेना, जनसाधारण

जॉन लारेंस

बरेली  

बख्त खां       

कैम्पबेल

फतेहपुर

अजीमुल्ला              

जनरल रेनर्ड

फैजाबाद

मौलवी         

अहमद-उल्ला

बरेली  

खान बहादुर खां

 

  • अहोम विद्रोह (1828-1830) : अंग्रेजों ने अहोम प्रदेश  को भी अपने प्रदेशों में सम्मिलित करने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप अहोम लोगों ने गोमधर कुँवर को अपना राजा घोषित कर 1828 में रंगपुर पर चढ़ाई करने की योजना बनाई। 1830 में दूसरे विद्रोह की योजना बनी। कम्पनी के अच्छे सैन्य बल और शांतिमय नीति के कारण इस विद्रोह को असफल बनाया जा सका।

  • खासी विद्रोह (1833) : अंग्रेजों ने जयंतिया तथा गारो पहाड़ियों के क्षेत्र पर अधिकार करने के बाद ब्रह्मपुत्र घाटी तथा सिल्हट को जोड़ने के लिए एक सैनिक मार्ग के निर्माण हेतु योजना बनाई। ननक्लों के राजा तीरत सिंह ने खाम्पटी तथा सिंहपों लोगों की सहायता से अंग्रेज विरोधी आन्दोलन की मुहिम छेड़ दी। 1833 ई. में सैन्य बल से ही अंग्रेज इस आन्दोलन को दबा सके।

  • कोल विद्रोह : भीलों की तरफ कोलों ने भी अंग्रेजी शासन से उत्पन्न बेकारी के कारण 1829, 1839 तथा पुनः 1844, 1848 तक विद्रोह किए। ये भीलों के पड़ोसी थे।

  • कच्छ का विद्रोह : 1819 में कच्छ के राजा भारमल को अंग्रेजों ने हटाकर वहां का वास्तविक शासन एक अंग्रेज रेजिडेंट के अधीन प्रतिशासक परिषद् को दिया। इस परिषद् द्वारा किए गए परिवर्तनों तथा अत्यधिक भूमि कर लगाने के कारण लोगों ने विद्रोह कर दिया अंग्रेजों को चिरकाल तक सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी पुनः यहाँ 1831 में विद्रोह हो गया।

  • मुंडा विद्रोह (1899-1900) : मुंडा जाति में सामूहिक खेती का प्रचलन था, लेकिन जागीरदारों, ठेकेदारों, बनियों और सूदखोरों ने सामूहिक खेती की परम्परा पर हमला बोल दिया। इसके विरोध में आदिवासियों ने बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 1899 में विद्रोह का ऐलान किया। लगभग छह हजार मुंडाओं ने तीर-तलवार, कुल्हाड़ी व अन्य हथियारों से लेस होकर 6 पुलिस थाना क्षेत्रों पर तीर चलाए और चर्च़ों को जलाने का प्रयास किया। लेकिन फरवरी 1900 के शुरू में बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में ही उसकी मृत्यु हो गई।

 

भारत में कृषक आन्दोलन

  • बंगाल में नील कृषकों की हड़ताल : नील विद्रोह का वर्णन ’दीनबन्धु‘ मित्र ने अपनी पुस्तक नीलदर्पण में किया है। इस आन्दोलन की शुरूआत दिगम्बर व विष्णु विश्वास ने की। 1858 से 1860 तक चला यह आन्दोलन अंग्रेज भूमिपतियों के विरूद्ध किया गया। कम्पनी के कुछ अवकाश प्राप्त अधिकारी बंगाल तथा बिहार के जमींदारों से भूमि प्राप्त कर नील की खेती करवाते थे। वे किसानों पर अत्याचार करते थे। अप्रैल, 1860 मे पाबना और नादिया जिलों के समस्त कृषकों ने भारतीय इतिहास की प्रथम कृषक हड़ताल की।

  • चम्पारन सत्याग्रह : उत्तर भारत के चम्पारन (बिहार) जिले यूरोपीय नील उत्पादक बिहारी नील कृषकों का शोषण करते थे। गांधी जी ने 1917 में बाबू राजेन्द्र प्रसाद की सहायता से कृषकों को अहिंसात्मक असहयोग करने की प्रेरणा दी और सत्याग्रह किया।

  • खेड़ा (केरा) आन्दोलन : यह आन्दोलन मुख्यतः बम्बई सरकार के विरूद्ध था। 1918 में सूखे के कारण फसलें नष्ट हो गई, जिससे कृषक कर देने में असमर्थ थे। परन्तु सरकार बिना किसी छूट के भू-कर पूरा वसूलना चाहती थी। फलस्वरुप किसानों ने गांधी जी के नेतृत्व में सत्याग्रह किया, जो जून, 1918 तक चलता रहा।

  • अन्य कृषक आन्दोलन : बंगाल का तेभागा आन्दोलन, दक्कन का तेलगांना आन्दोलन पश्चिमी भारत में वर्ली विद्रोह आदि।

 

ब्रिटिश प्रशासनिक संगठन

भारत में नागरिक सेवा का जन्मदाता 'लार्ड कार्नवालिस' था।

  • 1800 ई. में लार्ड वेलेजली ने नागरिक सेवा में आने वाले युवा लोगों के प्रशिक्षण के लिए कलकत्ता में 'फोर्ट विलियम कालेज' खोला।

  • 1833 में चार्टर एक्ट ने राज्य के उच्चतम पदों पर भारतीयों की नियुक्ति को कानूनी बना दिया, किन्तु 1793 के कानून की धाराओं के रद्द न किये जाने के कारण यह व्यवहार में नहीं लाया जा सका।

  • प्रारम्भ में नागरिक सेवा में प्रवेश की अधिकतम आयु 23 वर्ष थी, 1859 में 22 वर्ष, 1866 में 21 वर्ष तथा 1878 में 19 वर्ष कर दी गयी।

  • 1863 में इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले प्रथम भारतीय रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई सत्येन्द्रनाथ ठाकुर थे।

  • 1912 में भारतीय लोक सेवाओं पर लार्ड आइलिंगटन की अध्यक्षता वाले 'राजकीय आयोग' ने आईसीएस की परीक्षा भारत में भी लिये जाने की सिफारिश की।

  • 1924 में ली कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर 'इंडियन सिविल सर्विस' इंडियन पुलिस सर्विस, इंजीनियर्स सर्विस की सिंचाई शाखा और इंडियन फोरेस्ट सर्विस के अखिल भारतीय अफसरों की नियुक्ति को पहले की तरह सेक्रेटरी ऑफ स्टेट इन काउंसिल द्वारा नियुक्त किये जाने एवं हस्तांतरित विभागों की नौकरियों को प्रान्तीय सरकारों द्वारा नियंत्रित किये जाने की सिफारिश की गयी।

  • ली कमीशन के रिपोर्ट के आधार पर 1925 में एक 'लोक सेवा आयोग' की नियुक्ति दी गयी। 1935 के अधिनियम में संघीय लोक सेवा आयोग तथा प्रान्तीय लोक सेवा आयोगों की व्यवस्था दी।

 

न्यायिक व्यवस्था :

  • 1772 में प्रत्येक जिले में दीवानी एवं फौजदारी अदालतों की स्थापना की गयी।

  • अपीलीय अदालत के रूप में कलकत्ता में दो उच्च स्तरीय न्यायालयों की स्थापना की गयी-सदर दीवानी अदालत एवं सदर निजामत अदालत।

  • 1774 में रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गयी।

  • 1787 में जिला न्यायालय पुनः कलेक्टर के अधीन कर दिये गये। ढाका, पटना एवं मुर्शिदाबाद को छोड़कर अब कलेक्टर राजस्व मामलों की देखरेख नहीं कर सकता था। क्योंकि अब यह अधिकार राजस्व परिषद को हस्तांतरित कर दिया गया।

  • 1790 से सदर निजामत अदालत का संचालन मुसलमान न्यायाधीश के स्थान पर गवर्नर जनरल एवं परिषद द्वारा सीधे किया जाने लगा।

  • 1790 में जिला फौजदारी अदालत समाप्त कर दिये गये और अब चार मुख्य फौजदारी न्यायालय कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, ढाका एवं पटना में स्थापित किये गये।

  • 1793 में 'कार्नवालिस संहिता' के अंतर्गत कलेक्टर सभी न्यायिक एवं दंडाधिकारों से वंचित कर दिये गये। ये अधिकार अब नये न्यायाधीशों को दिये गये। सबसे निचली अदालत मुंसिफ अदालत थी।

  • 1833 के एक्ट द्वारा कानून बनाने के सारे अधिकार गवर्नर जनरल को हस्तांतरित कर दिये गये।

  • 1861 में इंडियन हाईकोर्ट एक्ट पारित हुआ।

  • 1865 में कलकत्ता, मद्रास एवं बम्बई में उच्च न्यायालय स्थापित किये गये।

  • 1935 में संघीय न्यायालय की स्थापना की गयी।


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