Rajasthan Me 1857 ki Kranti
राजस्थान में 1857 की क्रांति के प्रमुख कारण
सहायक संधि की नीति (Subsidiary Alliance ):-
देशी राज्यों को अंग्रेजों की राजनीतिक परिधि में लाने के लिए गवर्नर जनरल लॉर्ड वैलेजली (1798-1805) द्वारा प्रारम्भ की गई नीति जिसके तहत देशी राज्यों की आंतरिक सुरक्षा व विदेश नीति का उत्तरदायित्व अंग्रेजों पर था एवं जिसका खर्च संबंधित राज्य को उठाना पड़ता था। राजस्थान में सर्वप्रथम भरतपुर राज्य ने 29 सितम्बर 1803 ई. को लॉर्ड वैलेजली से सहायक संधि की परन्तु विस्तृत रक्षात्मक एवं आक्रमण संधि सर्वप्रथम अलवर रियासत ने 14 नवम्बर, 1803 को की थी। भारत में प्रथम सहायक संधि 1798 ई. में हैदराबाद के निजाम के साथ की गई थी।
देशी राज्यों को अंग्रेजों की राजनीतिक परिधि में लाने के लिए गवर्नर जनरल लॉर्ड वैलेजली (1798-1805) द्वारा प्रारम्भ की गई नीति जिसके तहत देशी राज्यों की आंतरिक सुरक्षा व विदेश नीति का उत्तरदायित्व अंग्रेजों पर था एवं जिसका खर्च संबंधित राज्य को उठाना पड़ता था। राजस्थान में सर्वप्रथम भरतपुर राज्य ने 29 सितम्बर 1803 ई. को लॉर्ड वैलेजली से सहायक संधि की परन्तु विस्तृत रक्षात्मक एवं आक्रमण संधि सर्वप्रथम अलवर रियासत ने 14 नवम्बर, 1803 को की थी। भारत में प्रथम सहायक संधि 1798 ई. में हैदराबाद के निजाम के साथ की गई थी।
अधीनस्थ पार्थक्य की नीति (Subordinate Isolation):-
मराठों व पिंडारियों की लूट-खसोट से तंग आकर राजस्थान के राजाओं ने गवर्नर जनरल लॉर्ड-हार्डिंग्स की 'अधीनस्थ पार्थक्य की नीति' के तहत अंग्रेजों से संधियाँ की। सर्वप्रथम करौली राज्य ने 15 नवम्बर, 1817 को अंग्रेजों के साथ संक्षिप्त संधि की। परन्तु विस्तृत एवं व्यापक प्रभाव वाली यह संधि सर्वप्रथम 26 दिसम्बर, 1817 को कोटा के प्रशासक झाला जालिमसिंह ने कोटा राज्य की ओर से की।
• वर्ष 1818 के अंत तक सभी रियासतों (सिरोही को छोड़कर) ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि की। ये संधियाँ कराने में चार्ल्स मटेकॉफ व कर्नल टॉड की विशेष भूमिका रही।
मराठों व पिंडारियों की लूट-खसोट से तंग आकर राजस्थान के राजाओं ने गवर्नर जनरल लॉर्ड-हार्डिंग्स की 'अधीनस्थ पार्थक्य की नीति' के तहत अंग्रेजों से संधियाँ की। सर्वप्रथम करौली राज्य ने 15 नवम्बर, 1817 को अंग्रेजों के साथ संक्षिप्त संधि की। परन्तु विस्तृत एवं व्यापक प्रभाव वाली यह संधि सर्वप्रथम 26 दिसम्बर, 1817 को कोटा के प्रशासक झाला जालिमसिंह ने कोटा राज्य की ओर से की।
• वर्ष 1818 के अंत तक सभी रियासतों (सिरोही को छोड़कर) ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि की। ये संधियाँ कराने में चार्ल्स मटेकॉफ व कर्नल टॉड की विशेष भूमिका रही।
विलय की नीति (Doctrine of lapse):-
सन् 1848 में भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी द्वारा प्रारम्भ की गई नीति जिसके अनुसार किसी देशी राजा के नि:संतान मर जाने पर उसकी रियासत ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दी जाती थी। इसके तहत् सर्वप्रथम 1848 में सतारा को और फिर 1856 में अवध को अँगेजी राज्य में मिलाया गया ।
• ब्रिटिश सरकार द्वारा अधिकाधिक धन का दोहन व रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया गया।
• सेना में एनफील्ड राइफलों में चरबी लगे कारतूसों के प्रयोग ने सैनिकों की धार्मिक भावनाओं को आहत किया। यह क्रांति का तात्कालिक कारण था।
• 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का प्रारम्भ 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में सेना के विद्रोह से हुआ।
• देशी रियासतों ने अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में यह जंग लड़ने का फैसला किया।
• इस समय भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग व राजस्थान के एजीजी जॉर्ज पेट्रिक्स लॉरेन्स थे।
राजस्थान में ब्यावर, नसीराबाद, नीमच, एरिनपुरा, देवली व खेरवाड़ा (उदयपुर) में 6 सैनिक छावनियाँ थीं।
सन् 1848 में भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी द्वारा प्रारम्भ की गई नीति जिसके अनुसार किसी देशी राजा के नि:संतान मर जाने पर उसकी रियासत ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दी जाती थी। इसके तहत् सर्वप्रथम 1848 में सतारा को और फिर 1856 में अवध को अँगेजी राज्य में मिलाया गया ।
• ब्रिटिश सरकार द्वारा अधिकाधिक धन का दोहन व रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया गया।
• सेना में एनफील्ड राइफलों में चरबी लगे कारतूसों के प्रयोग ने सैनिकों की धार्मिक भावनाओं को आहत किया। यह क्रांति का तात्कालिक कारण था।
• 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का प्रारम्भ 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में सेना के विद्रोह से हुआ।
• देशी रियासतों ने अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में यह जंग लड़ने का फैसला किया।
• इस समय भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग व राजस्थान के एजीजी जॉर्ज पेट्रिक्स लॉरेन्स थे।
राजस्थान में ब्यावर, नसीराबाद, नीमच, एरिनपुरा, देवली व खेरवाड़ा (उदयपुर) में 6 सैनिक छावनियाँ थीं।
राजस्थान में 1857 की क्रांति के प्रमुख केन्द्र
नसीराबाद सैनिक छावनी में विद्रोहः-
• अजमेर राजस्थान में ब्रिटिश सत्ता का प्रमुख केन्द्र था। राजस्थान के ए.जी.जी. सर पैट्रिक लॉरेन्स ने अजमेर की सुरक्षा हेतु वहाँ नियुक्त 15वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री को नसीराबाद भेजकर ब्यावर से दो मेर पलटने अजमेर बुलवा ली। अजमेर से बंगाल नेटिव इन्फैन्ट्री हटाये जाने तथा मेर पलटन को वहाँ नियुक्त किए जाने को लेकर 15वीं बंगाल नेटिव इंफैन्ट्री के सैनिकों में असंतोष बढ़ने लगा। नसीराबाद छावनी में 28 मई, 1857 को 15वीं नेटिव इंफेन्ट्री के सैनिकों ने तोपखाने के सैनिकों को अपनी ओर मिलाकर विद्रोह कर दिया तथा तोपों पर अधिकार कर लिया।
• क्रांतिकारी सैनिकों ने छावनी को तहस-नहस करने के बाद दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया। इन सैनिकों ने 18 जून को दिल्ली पहुँचकर वहाँ पर अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर उसे पराजित किया।
• अंग्रेज अधिकारी वाल्टर व हीथकोट ने मेवाड़ के सैनिकों की सहायता से इनका पीछा किया परन्तु उन्हें सफलता मिली नहीं।
• नीमच छावनी:- 3 जून, 1857 को नीमच के सैनिकों ने हीरासिंह के नेतृत्व में विद्रोह किया। उन्होंने 5 जून, 1857 को देवली व आगरा होते हुए दिल्ली के लिए कूच किया। अंग्रेज कैप्टन हार्डकेसल व लेफ्टि. वाल्टर के नेतृत्व में जोधपुर की सेनाओं एवं कैप्टन शावर्स के नेतृत्व में मेवाड़ की सेनाओं ने इनका पीछा किया परन्तु वे क्रांतिकारियों को नहीं रोक पाये।
• डूँगला:- वह स्थान जहाँ पर नीमच से बच कर भागे हुए 40 अंग्रेज अफसर व उनके परिवारजनों को क्रांतिकारियों ने बंधक बना लिया था। सूचना मिलने पर मेजर शावर्स (मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेन्ट) ने मेवाड़ की सेना की सहायता से उन्हें छुड़ाकर उदयपुर पहुँचाया जहाँ महाराणा स्वरूप सिंह ने उन्हें पिछोला झील के जगमंदिर में शरण दी। नीमच छावनी के कप्तान मेकडोनाल्ड ने किले की रक्षा का प्रयास किया परन्तु असफल रहा।
• एरिनपुरा छावनी:- 21 अगस्त, 1857 को छावनी के पूर्बिया सैनिकों ने विदोह कर दिया।
• आउवा का विद्रोह:- मारवाड़ में विद्रोह का सर्वप्रमुख केन्द्र आउवा नामक स्थान था। आउवा के ठाकुर खुशालसिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह व कैप्टन हीथकोट की सेना को आउवा के निकट बिथौड़ा ( पाली ) नामक स्थान पर 8 सितम्बर, 1857 को हराया। 9 सितम्बर, 1857 को उन्होंने जोधपुर सेना के प्रमुख अनाड़मिंह को मार दिया।
• एजीजी पैट्रिक लॉरेन्स अजमेर से सेना लेकर गए लेकिन चेलावास स्थान पर वे भी 18 सितम्बर, 1857 को क्रांतिकारियों से पराजित हो गये। इस युद्ध में जोधपुर का पॉलिटिकल एजेन्ट मोक मैसन भी लारेन्स के साथ था। मोकमैसन मारा गया और क्रांतिकारियों ने मैसन का सिर आउवा के किले के दरवाजे पर लटका दिया। जोधपुर लीजन के कुछ क्रांतिकारी 10 अक्टूबर, 1857 को आसोपा के ठाकुर शिवनाथ सिंह के नेतृत्व में दिल्ली की ओर चल पड़े। उन्होंने रेवाड़ी पर अधिकार कर लिया परन्तु आगे रास्ते में नारनौल में वे ब्रिगेडियर गेरार्ड के नेतृत्व वाली अंग्रेज सेना से 16 नवम्बर 1857 को परास्त हो गये एवं ठाकुर शिवनाथ सिंह वापस आलनिया आ गए तथा उन्होंने आत्म समर्पण कर दिया। उसके बाद गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग ने कर्नल होम्स की अगुवाई में एक विशाल सेना आउवा भेजी। 20 जनवरी, 1858 को घमासान हुआ। क्रांतिकारी अंग्रेज सेना के आगे टिक न सके और वहाँ से प्रस्थान कर गये। विजय की आशा न पाकर ठाकुर खुशाल सिंह 23 जनवरी, 1858 को रात्रि में किले का भार अपने छोटे भाई लाम्बिया कलां के पृथ्वीसिंह को सौपकर भाग निकला। पीछा करने गई अंग्रेजी सेना को सिरियारी घराने के प्रमुख 24 घंटे तक रोके रखा। 24 जनवरी, 1858 को दुर्ग पर ब्रिटिश सेना का अधिकार हो गया। ठाकुर खुशालसिंह ने कोठारिया के रावत जोधसिंह के यहाँ जाकर शरण ली। अंतत: उन्होंने 8 अगस्त, 1860 के दिन अंग्रेजों के समक्ष नीमच में आत्म समर्पण किया। मेजर टेलर की अध्यक्षता में एक कमीशन ने उनके खिलाफ जाँच की। 10 नवम्बर, 1860 को उन्हें रिहा किया गया। 25 जुलाई, 1864 को ठाकुर कुशालसिंह का उदयपुर में स्वर्गवास हो गया।
• अजमेर राजस्थान में ब्रिटिश सत्ता का प्रमुख केन्द्र था। राजस्थान के ए.जी.जी. सर पैट्रिक लॉरेन्स ने अजमेर की सुरक्षा हेतु वहाँ नियुक्त 15वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री को नसीराबाद भेजकर ब्यावर से दो मेर पलटने अजमेर बुलवा ली। अजमेर से बंगाल नेटिव इन्फैन्ट्री हटाये जाने तथा मेर पलटन को वहाँ नियुक्त किए जाने को लेकर 15वीं बंगाल नेटिव इंफैन्ट्री के सैनिकों में असंतोष बढ़ने लगा। नसीराबाद छावनी में 28 मई, 1857 को 15वीं नेटिव इंफेन्ट्री के सैनिकों ने तोपखाने के सैनिकों को अपनी ओर मिलाकर विद्रोह कर दिया तथा तोपों पर अधिकार कर लिया।
• क्रांतिकारी सैनिकों ने छावनी को तहस-नहस करने के बाद दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया। इन सैनिकों ने 18 जून को दिल्ली पहुँचकर वहाँ पर अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर उसे पराजित किया।
• अंग्रेज अधिकारी वाल्टर व हीथकोट ने मेवाड़ के सैनिकों की सहायता से इनका पीछा किया परन्तु उन्हें सफलता मिली नहीं।
• नीमच छावनी:- 3 जून, 1857 को नीमच के सैनिकों ने हीरासिंह के नेतृत्व में विद्रोह किया। उन्होंने 5 जून, 1857 को देवली व आगरा होते हुए दिल्ली के लिए कूच किया। अंग्रेज कैप्टन हार्डकेसल व लेफ्टि. वाल्टर के नेतृत्व में जोधपुर की सेनाओं एवं कैप्टन शावर्स के नेतृत्व में मेवाड़ की सेनाओं ने इनका पीछा किया परन्तु वे क्रांतिकारियों को नहीं रोक पाये।
• डूँगला:- वह स्थान जहाँ पर नीमच से बच कर भागे हुए 40 अंग्रेज अफसर व उनके परिवारजनों को क्रांतिकारियों ने बंधक बना लिया था। सूचना मिलने पर मेजर शावर्स (मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेन्ट) ने मेवाड़ की सेना की सहायता से उन्हें छुड़ाकर उदयपुर पहुँचाया जहाँ महाराणा स्वरूप सिंह ने उन्हें पिछोला झील के जगमंदिर में शरण दी। नीमच छावनी के कप्तान मेकडोनाल्ड ने किले की रक्षा का प्रयास किया परन्तु असफल रहा।
• एरिनपुरा छावनी:- 21 अगस्त, 1857 को छावनी के पूर्बिया सैनिकों ने विदोह कर दिया।
• आउवा का विद्रोह:- मारवाड़ में विद्रोह का सर्वप्रमुख केन्द्र आउवा नामक स्थान था। आउवा के ठाकुर खुशालसिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह व कैप्टन हीथकोट की सेना को आउवा के निकट बिथौड़ा ( पाली ) नामक स्थान पर 8 सितम्बर, 1857 को हराया। 9 सितम्बर, 1857 को उन्होंने जोधपुर सेना के प्रमुख अनाड़मिंह को मार दिया।
• एजीजी पैट्रिक लॉरेन्स अजमेर से सेना लेकर गए लेकिन चेलावास स्थान पर वे भी 18 सितम्बर, 1857 को क्रांतिकारियों से पराजित हो गये। इस युद्ध में जोधपुर का पॉलिटिकल एजेन्ट मोक मैसन भी लारेन्स के साथ था। मोकमैसन मारा गया और क्रांतिकारियों ने मैसन का सिर आउवा के किले के दरवाजे पर लटका दिया। जोधपुर लीजन के कुछ क्रांतिकारी 10 अक्टूबर, 1857 को आसोपा के ठाकुर शिवनाथ सिंह के नेतृत्व में दिल्ली की ओर चल पड़े। उन्होंने रेवाड़ी पर अधिकार कर लिया परन्तु आगे रास्ते में नारनौल में वे ब्रिगेडियर गेरार्ड के नेतृत्व वाली अंग्रेज सेना से 16 नवम्बर 1857 को परास्त हो गये एवं ठाकुर शिवनाथ सिंह वापस आलनिया आ गए तथा उन्होंने आत्म समर्पण कर दिया। उसके बाद गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग ने कर्नल होम्स की अगुवाई में एक विशाल सेना आउवा भेजी। 20 जनवरी, 1858 को घमासान हुआ। क्रांतिकारी अंग्रेज सेना के आगे टिक न सके और वहाँ से प्रस्थान कर गये। विजय की आशा न पाकर ठाकुर खुशाल सिंह 23 जनवरी, 1858 को रात्रि में किले का भार अपने छोटे भाई लाम्बिया कलां के पृथ्वीसिंह को सौपकर भाग निकला। पीछा करने गई अंग्रेजी सेना को सिरियारी घराने के प्रमुख 24 घंटे तक रोके रखा। 24 जनवरी, 1858 को दुर्ग पर ब्रिटिश सेना का अधिकार हो गया। ठाकुर खुशालसिंह ने कोठारिया के रावत जोधसिंह के यहाँ जाकर शरण ली। अंतत: उन्होंने 8 अगस्त, 1860 के दिन अंग्रेजों के समक्ष नीमच में आत्म समर्पण किया। मेजर टेलर की अध्यक्षता में एक कमीशन ने उनके खिलाफ जाँच की। 10 नवम्बर, 1860 को उन्हें रिहा किया गया। 25 जुलाई, 1864 को ठाकुर कुशालसिंह का उदयपुर में स्वर्गवास हो गया।
कोटा का विद्रोहः-
• राजस्थान में सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में कोटा का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। कोटा में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष राजकीय सेना तथा आम जन ने किया। कोटा के पॉलिटिकल एजेन्ट मि. बर्टन थे।
• नीमच में 3 जून, 1857 को भारतीय सैनिकों के संघर्ष की सूचना पाकर बर्टन कोटा, झालावाड़ तथा बूँदी की राजकीय सेनाओं को लेते हुए नीमच पहुँचे। अंग्रेजी सेना ने बिना किसी विरोध के नीमच छावनी पर अधिकार कर लिया।
• कोटा में जयदयाल एवं मेहराबखान के नेतृत्व में 15 अक्टूबर, 1857 को क्रांति का बिगुल बजा दिया गया।
• पॉलिटिकल एजेन्ट मि. बर्टन, उसके दो पुत्रों व एक डॉक्टर सैडलर काटम की हत्या कर दी गई। क्रांतिकारियों ने बर्टन का सिर धड़ से अलग कर दिया व इसका सारे शहर में खुला प्रदर्श किया ।
• कोटा के महाराव रामसिंह को उनके महल में नजरबन्द किया एवं कोटा राज्य की तोपों को अपने कब्जे में ले लिया। अब सारा शहर क्रांतिकारियों के नियंत्रण में हो गया। धीरे-धीरे संपूर्ण कोटा रियासत पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया।
• जनवरी, 1858 में करौली की सेना ने आकर कोटा महाराव को क्रांतिकारियों की नजरबंदी से मुक्त करवाया।
• मार्च, 1858 में मेजर जनरल रॉबर्ट्स के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने कोटा की क्रांतिकारी सेना पर आक्रमण किया। 30 मार्च, 1858 को कोटा पर अंग्रेजी सेना का अधिकार हो गया। जयदयाल और सहराब खाँ को फाँसी दे दी गई। 6 माह तक क्रांतिकारियों के अधीन रहने के बाद कोटा पुनः महाराव को प्राप्त हुआ। इस प्रकार कोटा में सर्वाधिक भीषण और व्यापक विप्लव हुआ करौली के महारावल मदनपाल की सेना भी मेजर जनरल रॉबर्ट्स के साथ थी। अंग्रेजों के विरुद्ध इतना सुनियोजित व सुनियंत्रित संघर्ष राजस्थान में अन्यत्र कहीं नहीं हुआ था।
• राजस्थान में सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में कोटा का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। कोटा में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष राजकीय सेना तथा आम जन ने किया। कोटा के पॉलिटिकल एजेन्ट मि. बर्टन थे।
• नीमच में 3 जून, 1857 को भारतीय सैनिकों के संघर्ष की सूचना पाकर बर्टन कोटा, झालावाड़ तथा बूँदी की राजकीय सेनाओं को लेते हुए नीमच पहुँचे। अंग्रेजी सेना ने बिना किसी विरोध के नीमच छावनी पर अधिकार कर लिया।
• कोटा में जयदयाल एवं मेहराबखान के नेतृत्व में 15 अक्टूबर, 1857 को क्रांति का बिगुल बजा दिया गया।
• पॉलिटिकल एजेन्ट मि. बर्टन, उसके दो पुत्रों व एक डॉक्टर सैडलर काटम की हत्या कर दी गई। क्रांतिकारियों ने बर्टन का सिर धड़ से अलग कर दिया व इसका सारे शहर में खुला प्रदर्श किया ।
• कोटा के महाराव रामसिंह को उनके महल में नजरबन्द किया एवं कोटा राज्य की तोपों को अपने कब्जे में ले लिया। अब सारा शहर क्रांतिकारियों के नियंत्रण में हो गया। धीरे-धीरे संपूर्ण कोटा रियासत पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया।
• जनवरी, 1858 में करौली की सेना ने आकर कोटा महाराव को क्रांतिकारियों की नजरबंदी से मुक्त करवाया।
• मार्च, 1858 में मेजर जनरल रॉबर्ट्स के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने कोटा की क्रांतिकारी सेना पर आक्रमण किया। 30 मार्च, 1858 को कोटा पर अंग्रेजी सेना का अधिकार हो गया। जयदयाल और सहराब खाँ को फाँसी दे दी गई। 6 माह तक क्रांतिकारियों के अधीन रहने के बाद कोटा पुनः महाराव को प्राप्त हुआ। इस प्रकार कोटा में सर्वाधिक भीषण और व्यापक विप्लव हुआ करौली के महारावल मदनपाल की सेना भी मेजर जनरल रॉबर्ट्स के साथ थी। अंग्रेजों के विरुद्ध इतना सुनियोजित व सुनियंत्रित संघर्ष राजस्थान में अन्यत्र कहीं नहीं हुआ था।
रियासत टोंक में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम :-
टोंक रियासत की स्थापना 1817 में नवाब अमीर खाँ व तत्कालीन अंग्रेज शासकों के मध्य हुए एक समझौते के जरिए हुई थी। इस रियासत के द्वितीय नवाब वजीर खां ( वजीरुद्दौला खाँ) के शासन काल ( 1834 से 1864 ई.) में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ था। यद्यपि नवाब वजीर खाँ अंग्रेज सरकार के पक्षधर थे किन्तु रियासत टोंक के स्वतंत्रता प्रेमी नवाब के सगे संबंधियों एवं सेना के बड़े भाग ने बगावत करते हुए स्वतंत्रता सैनानियों का साथ दिया। तांत्या टोपे के सेना सहित वहाँ आने पर टोंक के क्रांतिकारी उनके साथ हो गये। बनास नदी के किनारे और अमीरगढ़ के किले के निकट विद्रोहियों और नवाब की सेना में भयंकर संघर्ष हुआ। नवाब के दीवान फैजुल्ला खाँ को पकड़कर विद्रोहियों ने तोपखाने पर अधिकार कर लिया। नगर को घेरकर टोंक राज्य पर अपने शासन की घोषणा कर दी जो लगभग 6 माह तक रहा। अंत में जयपुर के रेजीडेन्ट ईडन के बड़ी सेना लेकर पहुँचने पर टोंक मुक्त हो सका। टोंक की क्रांति में मीर आलम खाँ व उनके परिवार ने अग्रणी भूमिका निभाई।
• धौलपुर में क्रांति:- धौलपुर में ग्वालियर व इन्दौर के क्रांतिकारी सैनिकों ने राव रामचन्द्र एवं हीरालाल के नेतृत्व में स्थानीय सैनिकों की सहायता से विद्रोह कर राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। दिसम्बर, 1857 तक धौलपुर का शासक शक्ति व अधिकारविहीन शासक की भाँति रहा। 2 माह बाद पटियाला की सेना ने आकर विद्रोह को समाप्त किया।
• तात्या टोपे:- तांत्या टोपे पेशवा बाजीराव के उत्तराधिकारी नाना साहब का स्वामिभक्त सेवक था। 1857 की क्रांति में वह ग्वालियर का विद्रोही नेता था। तात्या टोपे 23 जून, 1857 ई. को अलीपुर में अंग्रेजों के हाथों परास्त होने के बाद राजस्थान के ब्रिटिश विरोधी लोगों से सहयोग प्राप्त करने की आकांक्षा से राजस्थान आया था लेकिन उन्हें वांछित सफलता नहीं मिली। टोपे सर्वप्रथम 8 अगस्त, 1857 को भीलवाड़ा आये। वहाँ 9 अगस्त, 1857 को उनका कोठारी नदी के तट पर कुआड़ा नामक स्थान पर जनरल रॉबर्ट्स की सेना से युद्ध हुआ, परन्तु उन्हें पीछे हटना पड़ा। उसके बाद तात्या टोपे सेना सहित झालावाड़ पहुँचे तथा वहाँ झालावाड़ की सेना उनके साथ मिल गई तथा उन्होंने वहाँ के शासक पृथ्वीसिंह को अपदस्थ कर झालावाड़ पर अधिकार कर लिया। इसके बाद तांत्या छोटा उदयपुर होते हुए वापस ग्वालियर लौट गये। दिसंबर, 1857 में तात्या टोपे पुनः मेवाड़ (राजस्थान) आया तथा 11 दिसम्बर, 1857 को उनकी सेना ने बाँसवाड़ा शहर पर अधिकार कर लिया। महारावल शहर छोड़कर चले गये। तांत्या इसके बाद सलूंबर, भीण्डर होते हुए बन्दा के नवाब के साथ टोंक पहुँचे जहाँ टोंक के क्रांतिकारी उनके साथ हो गये। अमीरगढ़ के किले के निकट बनास नदी के किनारे उनका टोंक के नवाब की सेना से युद्ध हुआ। क्रांतिकारियों ने तोपखाने पर अधिकार कर टोंक में अपने शासन की घोषणा कर दी। इसकी सूचना मिलते ही मेजर ईडन अंग्रेज सेना लेकर टोंक की तरफ आ गये। तात्या टोपे टोंक छोड़कर नाथद्वारा की ओर चले गये। अन्त में ताँत्या टोपे को नरवर के जागीरदार मानसिंह नरूका की सहायता से नरवर के जंगलों में पकड़ लिया गया और 18 अप्रैल, 1859 को उन्हें सिप्री में फाँसी दे दी गई ।
टोंक रियासत की स्थापना 1817 में नवाब अमीर खाँ व तत्कालीन अंग्रेज शासकों के मध्य हुए एक समझौते के जरिए हुई थी। इस रियासत के द्वितीय नवाब वजीर खां ( वजीरुद्दौला खाँ) के शासन काल ( 1834 से 1864 ई.) में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ था। यद्यपि नवाब वजीर खाँ अंग्रेज सरकार के पक्षधर थे किन्तु रियासत टोंक के स्वतंत्रता प्रेमी नवाब के सगे संबंधियों एवं सेना के बड़े भाग ने बगावत करते हुए स्वतंत्रता सैनानियों का साथ दिया। तांत्या टोपे के सेना सहित वहाँ आने पर टोंक के क्रांतिकारी उनके साथ हो गये। बनास नदी के किनारे और अमीरगढ़ के किले के निकट विद्रोहियों और नवाब की सेना में भयंकर संघर्ष हुआ। नवाब के दीवान फैजुल्ला खाँ को पकड़कर विद्रोहियों ने तोपखाने पर अधिकार कर लिया। नगर को घेरकर टोंक राज्य पर अपने शासन की घोषणा कर दी जो लगभग 6 माह तक रहा। अंत में जयपुर के रेजीडेन्ट ईडन के बड़ी सेना लेकर पहुँचने पर टोंक मुक्त हो सका। टोंक की क्रांति में मीर आलम खाँ व उनके परिवार ने अग्रणी भूमिका निभाई।
• धौलपुर में क्रांति:- धौलपुर में ग्वालियर व इन्दौर के क्रांतिकारी सैनिकों ने राव रामचन्द्र एवं हीरालाल के नेतृत्व में स्थानीय सैनिकों की सहायता से विद्रोह कर राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। दिसम्बर, 1857 तक धौलपुर का शासक शक्ति व अधिकारविहीन शासक की भाँति रहा। 2 माह बाद पटियाला की सेना ने आकर विद्रोह को समाप्त किया।
• तात्या टोपे:- तांत्या टोपे पेशवा बाजीराव के उत्तराधिकारी नाना साहब का स्वामिभक्त सेवक था। 1857 की क्रांति में वह ग्वालियर का विद्रोही नेता था। तात्या टोपे 23 जून, 1857 ई. को अलीपुर में अंग्रेजों के हाथों परास्त होने के बाद राजस्थान के ब्रिटिश विरोधी लोगों से सहयोग प्राप्त करने की आकांक्षा से राजस्थान आया था लेकिन उन्हें वांछित सफलता नहीं मिली। टोपे सर्वप्रथम 8 अगस्त, 1857 को भीलवाड़ा आये। वहाँ 9 अगस्त, 1857 को उनका कोठारी नदी के तट पर कुआड़ा नामक स्थान पर जनरल रॉबर्ट्स की सेना से युद्ध हुआ, परन्तु उन्हें पीछे हटना पड़ा। उसके बाद तात्या टोपे सेना सहित झालावाड़ पहुँचे तथा वहाँ झालावाड़ की सेना उनके साथ मिल गई तथा उन्होंने वहाँ के शासक पृथ्वीसिंह को अपदस्थ कर झालावाड़ पर अधिकार कर लिया। इसके बाद तांत्या छोटा उदयपुर होते हुए वापस ग्वालियर लौट गये। दिसंबर, 1857 में तात्या टोपे पुनः मेवाड़ (राजस्थान) आया तथा 11 दिसम्बर, 1857 को उनकी सेना ने बाँसवाड़ा शहर पर अधिकार कर लिया। महारावल शहर छोड़कर चले गये। तांत्या इसके बाद सलूंबर, भीण्डर होते हुए बन्दा के नवाब के साथ टोंक पहुँचे जहाँ टोंक के क्रांतिकारी उनके साथ हो गये। अमीरगढ़ के किले के निकट बनास नदी के किनारे उनका टोंक के नवाब की सेना से युद्ध हुआ। क्रांतिकारियों ने तोपखाने पर अधिकार कर टोंक में अपने शासन की घोषणा कर दी। इसकी सूचना मिलते ही मेजर ईडन अंग्रेज सेना लेकर टोंक की तरफ आ गये। तात्या टोपे टोंक छोड़कर नाथद्वारा की ओर चले गये। अन्त में ताँत्या टोपे को नरवर के जागीरदार मानसिंह नरूका की सहायता से नरवर के जंगलों में पकड़ लिया गया और 18 अप्रैल, 1859 को उन्हें सिप्री में फाँसी दे दी गई ।
डूँगजी-जवाहर जी
• शेखावाटी में सर्वप्रथम स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व बठठ पाटोदा (सीकर) के ठाकुर डूंगरसिंह व उनके भतीजे जवाहर सिंह शेखावत ने किया।
• सन् 1847 में डूंगजी-जवाहरजी ने छापामार लड़ाइयों से अंग्रेजों को बुरी तरह परेशान किया। अंग्रेजों ने डूंगजी को आगरा के किले में कैद कर दिया था । जवाहरजी ने उन्हें लोटिया जाट और करणिया मीणा के साथ मिलकर कैद से छुड़ाया। कैद से छूटने के बाद डूँगजी-जवाहरजी ने 1847 में नसीराबाद छावनी को बुरी तरह से लूटा ।
• डूँगजी-जवाहरजी इतने वीर पुरुष थे कि फतेहपुर (शेखावाटी) में आज भी लोग इन्हें लोक-देवता के रूप में श्रद्धापूर्वक पूजते हैं। शेखावाटी में भोपे भी इनकी विरुदावली गाते हैं।
• प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का अंतः- सितम्बर, 1857 को मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को पकड़ लिया गया और दिल्ली के लाल किले पर अंग्रेजी आधिपत्य हो गया। इस प्रकार देश को गुलामी से मुक्त कराने का प्रथम प्रयास असफल रहा।
• पर्याप्त नियोजन व सूझबूझ का अभाव, अधिकांश नरेशों द्वारा ब्रिटिश शासकों को सहयोग, क्रांतिकारियों के पास धन, रसद व हथियारों की कमी तथा क्रांतिकारियों में अखिल भारतीय दृष्टिकोण व समन्वय का अभाव आदि क्रांति के असफल रहने के प्रमुख कारण थे ।
• बीकानेर के राजा सरदारसिंह राजस्थान के एकमात्र ऐसे शासक थे जो स्वयं अपनी सेना लेकर अंग्रेजों की सहायतार्थ अपनी रियासत से बाहर गए और 'बाडलू' नामक स्थान पर क्रांतिकारियों की सेना को परास्त किया।
• करौली के शासक मदनपाल ने अपनी सेना कोटा की क्रांति को दबाने हेतु भेजी थी।
• जयपुर महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय ने अपनी सेना अंग्रेजों की सहायतार्थ मेजर ईडन के पास भिजवाई थी।
• इस प्रकार बीकानेर नरेश सरदार सिंह, करौली एवं जयपुर रियासतों ने क्रांतिकारियों को कुचलने हेतु प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों को सैनिक सहायता प्रदान की।
• क्रांति का तात्कालिक प्रभाव :- ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने 2 अगस्त, 1858 को भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर यहाँ का शासन सीधे ब्रिटिश ताज के अधीन कर दिया। गवर्नर जनरल का पदनाम गवर्नर जनरल एवं वायसराय हो गया। भारत का प्रथम वॉयसराय व गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग को नियुक्त किया गया।
• अमरचन्द्र बांठिया :- देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में ब्रिटिश सत्ता द्वारा फांसी पर लटकाए गए प्रथम शख्स। उन्हें दूसरा भामाशाह भी कहते हैं।
• शेखावाटी में सर्वप्रथम स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व बठठ पाटोदा (सीकर) के ठाकुर डूंगरसिंह व उनके भतीजे जवाहर सिंह शेखावत ने किया।
• सन् 1847 में डूंगजी-जवाहरजी ने छापामार लड़ाइयों से अंग्रेजों को बुरी तरह परेशान किया। अंग्रेजों ने डूंगजी को आगरा के किले में कैद कर दिया था । जवाहरजी ने उन्हें लोटिया जाट और करणिया मीणा के साथ मिलकर कैद से छुड़ाया। कैद से छूटने के बाद डूँगजी-जवाहरजी ने 1847 में नसीराबाद छावनी को बुरी तरह से लूटा ।
• डूँगजी-जवाहरजी इतने वीर पुरुष थे कि फतेहपुर (शेखावाटी) में आज भी लोग इन्हें लोक-देवता के रूप में श्रद्धापूर्वक पूजते हैं। शेखावाटी में भोपे भी इनकी विरुदावली गाते हैं।
• प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का अंतः- सितम्बर, 1857 को मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को पकड़ लिया गया और दिल्ली के लाल किले पर अंग्रेजी आधिपत्य हो गया। इस प्रकार देश को गुलामी से मुक्त कराने का प्रथम प्रयास असफल रहा।
• पर्याप्त नियोजन व सूझबूझ का अभाव, अधिकांश नरेशों द्वारा ब्रिटिश शासकों को सहयोग, क्रांतिकारियों के पास धन, रसद व हथियारों की कमी तथा क्रांतिकारियों में अखिल भारतीय दृष्टिकोण व समन्वय का अभाव आदि क्रांति के असफल रहने के प्रमुख कारण थे ।
• बीकानेर के राजा सरदारसिंह राजस्थान के एकमात्र ऐसे शासक थे जो स्वयं अपनी सेना लेकर अंग्रेजों की सहायतार्थ अपनी रियासत से बाहर गए और 'बाडलू' नामक स्थान पर क्रांतिकारियों की सेना को परास्त किया।
• करौली के शासक मदनपाल ने अपनी सेना कोटा की क्रांति को दबाने हेतु भेजी थी।
• जयपुर महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय ने अपनी सेना अंग्रेजों की सहायतार्थ मेजर ईडन के पास भिजवाई थी।
• इस प्रकार बीकानेर नरेश सरदार सिंह, करौली एवं जयपुर रियासतों ने क्रांतिकारियों को कुचलने हेतु प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों को सैनिक सहायता प्रदान की।
• क्रांति का तात्कालिक प्रभाव :- ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने 2 अगस्त, 1858 को भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर यहाँ का शासन सीधे ब्रिटिश ताज के अधीन कर दिया। गवर्नर जनरल का पदनाम गवर्नर जनरल एवं वायसराय हो गया। भारत का प्रथम वॉयसराय व गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग को नियुक्त किया गया।
• अमरचन्द्र बांठिया :- देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में ब्रिटिश सत्ता द्वारा फांसी पर लटकाए गए प्रथम शख्स। उन्हें दूसरा भामाशाह भी कहते हैं।
Badiya hai
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