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मेवाड़ का इतिहास (mewad ka itihaas)

Mewad ka itihaas

मेवाड़ का प्राचीन नाम शिवि, प्राग्वाट, मेदपाट आदि रहे हैं। इस क्षेत्र पर पहले मेद अर्थात मेर जाति का अधिकार रहने से इसका नाम मेदपाट (मेवाड़) पड़ा।


संसार के अन्य सभी राज्यों के राजवंशों से उदयपुर का राजवंश अधिक प्राचीन है। भगवान रामचंद्र के पुत्र कुश के वंशजों में से 566 ई. में मेवाड़ में गुहादित्य (गुहिल) नाम का प्रतापी राजा हुआ, जिसने गुहिल वंश की नींव डाली। उदयपुर के राजवंश ने तब से लेकर राजस्थान के निर्माण तक इसी प्रदेश पर राज किया। इतने अधिक समय तक एक ही प्रदेश पर राज करने वाला संसार में एकमात्र यही राजवंश है।

मेवाड़ के प्रमुख शासक व प्रमुख घटनाएं

बप्पा रावल (1734 से 1753 ई.) :-

महेंद्र द्वितीय का पुत्र जिसका नाम कालभोज था। बप्पा इसका विदुर था। बप्पा रावल ने हरित ऋषि के आशीर्वाद से सन् 734 में मौर्य राजा मान (मान मोरी) से चित्तौड़ दुर्ग जीता‌। इनके इष्ट देव एकलिंग जी व राजधानी नागदा थी। इनका देहांत नागदा में हुआ व एकलिंग जी (कैलाशपुरी) के निकट समाधि स्थल है जो "बप्पा रावल" के नाम से प्रसिद्ध है।

अल्लट (951 से 953 ई.) :-

अल्लट ने आहड़ को अपनी दूसरी राजधानी बनाया जो एक समृद्ध नगर व एक बड़ा व्यापारिक केंद्र था। अल्लट ने मेवाड़ में सबसे पहले नौकरशाही का गठन किया।

जैत्रसिंह (1213 से 1253 ई.) :-

प्रतापी व वीर शासक जिसने इल्तुतमिश के आक्रमण के बाद मेवाड़ की राजधानी नागदा से चित्तौड़ को बनाया।

रावल रतन सिंह (1303 ई.) :-

इनके शासन काल की प्रमुख घटना "चित्तौड़ का प्रथम शाखा" थी। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर 1303 ई. में आक्रमण कर चित्तौड़ का किला फतह किया। मालिक मोहम्मद जायसी के 'पद्मावत' के अनुसार यह युद्ध रावल रतन सिंह की अति सुंदर महारानी पद्मिनी के लिए हुआ। इस युद्ध में रानी पद्मिनी ने जौहर किया तथा गोरा और बादल वीर गति को प्राप्त हुए। खिलजी ने चित्तौड़ का किला अपने पुत्र खिज्र खां को सौंप कर उसका नाम खिज्राबाद कर दिया। चित्तौड़ के प्रथम शाके में प्रसिद्ध इतिहासकार व कवि अमीर खुसरो अलाउद्दीन खिलजी के साथ था।

राणा हम्मीर (1326 से 1364 ई.) :-

सन् 1326 में सिसोदिया शाखा के राणा अरिसिंह के पुत्र राणा हम्मीर ने चित्तौड़ में सिसोदिया वंश की नींव डाली। हम्मीर से ही मेवाड़ के शासक महाराणा कहलाने लगे। कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति में हम्मीर को "विषम घाटी पंचानन" (विकट आक्रमणों में सिंह के सदृश्य) कहां है।

महाराणा लाखा (1382 से 1421 ई.) :-

इनके समय मगरा क्षेत्र के जावर में चाँदी की खान निकली। एक बंजारे ने पिछोला झील का निर्माण करवाया। राणा लाखा का वृद्धावस्था में मंडौर के राव चूँड़ा राठौड़ की पुत्री हंसाबाई (रणमल की बहिन) के साथ विवाह हुआ। राणा लाखा के बड़े पुत्र चूँड़ा ने मेवाड़ का राज्य हंसाबाई की होने वाली संतान को देने की भीष्म प्रतिज्ञा की। अत: लाखा की मृत्यु (1421 ई.) के बाद चूड़ा ने हंसाबाई के पुत्र मोकल को राज्य सिंहासन पर बैठाया। रघुवंश में रामचंद्र के बाद पितृ भक्ति का ऐसा उदाहरण केवल चूंडा ने ही प्रस्तुत किया।

महाराणा कुंभा (1433 से 1468 ई.) :-

'हिन्दू सुरकत्राण' और 'अभिनव भरताचार्य' के नाम से प्रसिद्ध।


सांरगपुर का युद्ध :- महाराणा कुंभा व मालवा (मांडू) के सुल्तान महमूद खिलजी के मध्य 1437 में हुआ युद्ध जिसमें विजय के उपलक्ष्य में अपने उपास्यदेव विष्णु के निमित्त महाराणा कुंभा ने विजय स्तम्भ' (कीर्तस्तम्भ) का निर्माण करवाया। विजय स्तम्भ (कीर्तिस्तम्भ) का निर्माण 1440 में प्रारम्भ होकर 1448 ई. में पूर्ण हुआ। निर्माणकर्ता व सूत्रधार जैता और उसके पुत्र नापा, पोमा व पूंजा । विजय स्तम्भ में पत्थरों पर महाराणा कुंभा ने कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति खुदाई। प्रशस्ति के रचयिता कवि अत्रि (प्रारंभ करने के कुछ समय बाद मृत्यु) व कवि महेश थे । इसे 'भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष' कहा जाता है ।


कुम्भलगढ़ दुर्ग :- कुंभा ने 1458 ई. में कुम्भलगढ़ दुर्ग बनाया जिसका प्रमुख शिल्पी मंडन था । दुर्ग के भीतर बनाया गया कटारगढ़ (लघुदुर्ग) कुंभा का निवास स्थान था। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति का रचयिता भी कवि महेश ही था ।


महाराणा कुंभा के काल में रणकपुर के जैन मंदिरों का निर्माण 1439 ई. में एक जैन श्रेष्ठि धरनक ने करवाया था। जिसका शिल्पी देपाक था।

महाराणा सांगा (1509 से 1527 ई.) :-

  महाराणा रायमल के पुत्र महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) का राज्याभिषेक 24 मई, 1509 को किया गया। अजमेर के कर्मचन्द पंवार ने सांगा की बचपन में रक्षा की थी।


खातौली का युद्ध :- सन् 1517 में हाड़ौती की सीमा पर खातोली (कोटा) के युद्ध में राणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को हराया। खानवा का युद्ध खानवा का मैदान भरतपुर जिले की रूपवास तहसील में है।


17 मार्च, 1527 को राणा सांगामुगल शासक बाबर के मध्य खानवा का युद्ध हुआ जिसमें बाबर विजयी हुआ।


बाबर की तुलुगमा युद्ध पद्धति राणा सांगा की हार का मुख्य कारण था। इस पराजय से भारतवर्ष में मुगलों का साम्राज्य स्थापित हो गया तथा बाबर स्थिर रूप से भारत वर्ष का बादशाह बना।


कालपी के पास इरिच गाँव में इसके सरदारों द्वारा विष दे देने के कारण 30 जनवरी, 1528 को महाराणा साँगा का स्वर्गवास हुआ। उन्हें । मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) लाया गया जहाँ उनकी समाधि है।


राणा सांगा एकमात्र हिन्दू राजा था जिसके सेनापतित्व में खानवा के युद्ध में सब राजपूत जातियाँ विदेशियों को भारत से निकालने के लिए सम्मिलित हुई। ऐसा कोई अन्य राजा नहीं हुआ जो सारे राजपुताना की सेना का सेनापति बना हो।

महाराणा विक्रमादित्य :-

महाराणा सांगा के छोटे पुत्र जो 1531 ई. में मेवाड़ के राजा बने।


गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने सन् 1533 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण किया। महाराणा सांगा की हाड़ी रानी कर्मावती ने हुमायूँ को राखी भेजकर सहायता माँगी लेकिन सहायता न मिलने पर कर्मवती ने सुल्तान से संधि की व सुल्तान 24 मार्च, 1533 को चित्तौड़ से लौट गया।


चित्तौड़ का द्वितीय साका :- सन् 1534 में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह व अल्पवय महाराणा विक्रमादित्य के मध्य युद्ध हुआ जिसमें देवलिया प्रतापगढ़ के वीर रावत बाघसिंह चित्तौड़ दुर्ग के पांडुपोल दरवाजे के बाहर तथा राणा सज्जा व सिंहा हनुमानपोल के बाहर, लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। महाराणा लड़ाई में बहादुर शाह की विजय हुई।


सन् 1554 में चित्तौड़गढ़ दुर्ग में दासी पुत्र बमवीर ने महाराणा विक्रमादित्य का सोते हुए वध कर दिया। बनवीर उदयसिंह को भी मारना चाहता था लेकिन स्वामीभक्त पन्नाधाय ने अपने पुत्र का बलिदान देकर उदयसिंह का बचा लिया। पन्नाधाय उदयसिंह को लेकर कुंभलगढ़ गई जहाँ के किलेदार आशा देवपुरा ने उन्हें अपने पास रखा।

महाराणा उदयसिंह (1537 से 1572 ई.) :-

पालन पोषण कुंभलगढ़ दुर्ग में। 1537 ई. में कुंभलगढ़ में ही राज्याभिषेक।


1540 में उदयसिंह कुंभलगढ़ से ही प्रयाण कर बनवीर को हराकर चित्तौड़ के स्वामी बने।


1559 ई. में उदयपुर शहर बसाया व उदय सागर का निर्माण प्रारम्भ करवाया जो 1565 में बनकर पूर्ण हुआ।


चित्तौड़ का तृतीय शाका :- 23 अक्टूबर 1567 को अकबर द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण किया गया। राणा उदयसिंह जयमल राठौड़, रावत पत्ता और अन्य प्रमुख सामन्तों पर किले की सुरक्षा का भार छोड़कर अपनी रानियों और परिवार के अन्य सदस्यों सहित निकटवर्ती पहाड़ों में सुरक्षित स्थान पर चले गए। वीर रावत पत्ता रामपोल के भीतर वीरगति को प्राप्त हुए। 25 फरवरी, 1568 को अकबर ने किले पर अधिकार कर लिया।


महाराणा उदयसिंह का 28 फरवरी, 172 को गोगुन्दा में देहान्त हो गया जहाँ उनकी छतरी बनी हुई है।

 महाराणा प्रताप ( 1572 से 1597 ई.):-

जन्म: 9 मई, 1540 को कुंभलगढ़ दुर्ग में। महाराणा उदयसिंह ने पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था जबकि सबसे बड़े पुत्र व योग्य उत्तराधिकारी प्रताप थे, लेकिन सब सरदारों ने मिलकर प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में कर दिया। कुंभलगढ़ में उनके राज्याभिषेक का उत्सव हुआ।


बादशाह अकबर ने सर्वप्रथम जलालखाँ को नवम्बर, 1572 में, आमेर के राजकुमार मानसिंह कछवाहा को मार्च, 1573 ई. में, आमेर शासक भगवन्त दास (मानसिंह के पिता) को सितम्बर, 1573 में तथा अन्त में राजा टोडरमल को दिसम्बर, 1573 में महाराणा प्रताप के पास अपनी अधीनता स्वीकार कराने हेतु भेजा। लेकिन सभी प्रयत्न निष्फल रहे।


हल्दीघाटी का युद्धः- यह युद्ध सेनापति मानसिंह कछवाहा के नेतृत्व में अकबर की सेना व महाराणा प्रताप की सेना के मध्य हल्दीघाटी (राजसमंद) में 21 जून, 1576 को हुआ जिसमें अकबर की सेना विजयी हुई।


कर्नल टॉड ने हल्दीघाटी को मेवाड़ का थर्मोपोली व दिवेर को मेवाड़ का मेराथन कहा है। सन् 1582 में दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने चावंड को अपनी राजधानी बनाया। 19 जनवरी, 1597 को प्रताप का चावंड में देहान्त हुआ। चावंड से कुछ दूर बांडोली गाँव के निकट महाराणा का अग्नि संस्कार हुआ जहाँ उनकी छतरी बनी हुई है।

महाराणा अमरसिंह प्रथम (1597 से 1620):-

19 जनवरी, 1597 ई. को चावंड में राज्याभिषेक।


महाराणा अमर सिंह ने 5 फरवरी, 1615 को शाहजादा खुर्रम से संधि की। 19 फरवरी, 1615 को अमरसिंह के पुत्र कुँवर कर्णसिंह को लेकर शाहजादा खुर्रम बादशाह जहाँगीर के दरबार में अजमेर पहुँचा।


26 जनवरी, 20 को महाराणा अमर सिंह का देहात उदयपुर में हुआ और अन्त्येष्टि आहड़ में गंगोट्भव के निकट हुई। आहड़ की महासतियों में सबसे पहली छतरी महाराणा अमर सिंह की है।

महाराणा राजसिंह ( 1652 से 1680 ई.):-

इन्होंने बादशाह औरंगजेब के जजिया कर का विरोध किया।


सिहाड़ (वर्तमान नाथद्वारा) में श्रीनाथ जी की मूर्ति तथा कांकरोली में द्वारकाधीश की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई।


राजसमंद झील का निर्माण व राज प्रशस्ति की रचना करवाई। राजप्रशस्ति भारत का सबसे बड़ा शिलालेख है।

महाराणा जगतसिंह द्वितीय (1734 ई.):-

हुरडा सम्मेलन: महाराणा जगतसिंह द्वितीय एवं जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने 17 जुलाई, 1734 को मेवाड़ के हुरडा नामक स्थान पर राजपूत राजाओं का सम्मेलन आयोजित कर एक शक्तिशाली मराठा विरोधी मंच बनाया।

महाराणा भीमसिंह (1778 ई. ):-

1818 में महाराणा भीमसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर मेवाड़ को विदेशी शक्ति के अधीन किया। उदयपुर महाराणा भीमसिंह की पुत्री कृष्णा कुमारी के रिश्ते को लेकर जयपुर नरेश जगत सिंह व जोधपुर शासक मानसिंह के मध्य विवाद। कृष्णा कुमारी को जहर देकर विवाद समाप्त किया।

महत्त्वपूर्ण तथ्य (मेवाड़ का इतिहास)

सूत्रधार मंडन ने देव मूर्ति-प्रकरण(रूपमण्डन),प्रसाद मंडन, राजवल्लभ, कोदंडमंडन, शाकुन मडन, वास्तुशास्त्र, वैद्यमंडन और वास्तुसार, मंडन के भाई नाथा ने वास्तुमंजरी और मंडन के पुत्र गोविन्द ने कलानिधि नामक पुस्तकों की रचना की।


• बादशाह अकबर ने आगरा के किले के द्वार पर जयमल और पत्ता की हाथियों पर चढ़ी हुई मूर्तियाँ बनवाई।


• डूंगरपुर महारावल आसकरण की पटरानी प्रेमल देवी ने डूंगरपुर में सन् 1586 में भव्य नौलखा बावड़ी का निर्माण करवाया।

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